मंगलवार, 25 मई 2010

समथ और विपश्यना

समथ और विपश्यना अत्यंत दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।समथ का तात्पर्य है- चित्त की ऐसी एकाग्रता ,सूक्ष्मता और तीक्ष्णता , जो गहराइयों तक सच्चाइयों को जन ले। विपश्यना का अर्थ है - तटस्थता एवं समता का भाव। अर्थात मन जरा -सा भी विचलित न हो। जिस तरहःजैस तटस्थ हो कर नदी के प्रहाव को देखते हैं, उसी प्रकार साक्षी भाव से शरीर को देखना है। अनुभूतियों द्वारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करें। परोक्ष ज्ञान बांधता है , प्रत्यक्ष ज्ञान मुक्त करता है। हम प्राय: दर्शन की बातें ही करते हैं, जब कि दर्शन का अर्थ है साक्षात्कार , जो केवल अनुभूति से ही प्राप्त होता है। लेकिन दर्शन को फिलोसफी बनाकर कोरे ज्ञान की चर्चा में उलझें रहते हैं। तथा इस पर बहस वाद-विवाद आदि करते रहते हैं। हल्के -से-हल्के और भारी-से-भारी तक का वजन का सारा क्षेत्र पृथ्वी धातु को अनुभव करने का क्षेत्र है। अग्नि धातु का क्षेत्र है शीतल -से शीतल और गर्म -से-गर्म की सारी अवस्था _अर्थात तापमान का पूरा क्षेत्र अग्नि धातु का क्षेत्र है। इसी प्रकार हलन-चलन का सारा क्षेत्र वसायु धातु का क्षेत्र है और जल धातु का क्षेत्र नमी द्वारा बांधना, संयोजित करना एवं संश्लिष्ट करना है।विपश्यना का अभ्यास करते हुए हमें शरीर में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूतियाँ होती हैं , जब कभी पृथ्वी तत्त्व धातु प्रबल होकर आती है ; तब कहीं भारी लगता है तो कहीं हल्का लगता है। जब वायु धातु प्रबल होकर आती है ,तो किसी प्रकार की हलन-चलन ,तरंग या धढ़कन का अनुभव होता है। हर एक धातु अपने-अपने स्वभाव को प्रकट करती है। उदहारण के लिए ठोस बर्फ पृथ्वी ,पिघल कर पानी भाप बन कर हवा ,पर तीनों ही अवस्था में उस में तापमान है। जैसा शरीर को आहार दिया जाता है ,वैसे ही परमाणु बनते हैं ।मिर्च-मसाले अग्नि-तत्व का प्रभाव रखते हैं। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन पृथ्वी का द्योतक होता है। अस्वस्थ भोजन शरीर को भी अस्वस्थ करता है। जिस क्षण हम जो संस्कार बनाते हैं, चेतना की धारा का उस क्षण का वही आहार है। इस क्षण के संस्कार से ही अगले क्षण का विज्ञानं यानि चित्त उत्पन्न होता है।

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