शुक्रवार, 4 जून 2010

कुसुम का बल शशि

कुसुम का बल शशि है या शशि का बल कुसुम है, बात एक ही है क्योंकि दोनों परस्पर सम्बद्ध इतने हैं कि उनमें अंतर करना सहज नहीं है। कुसुम और शशि में अत्यधिक आत्मीयता रही है, और यह सदा - सनातन है। कुमुद रूपी कुसुम शशि को प्राप्त करते ही प्रफुल्लित हो उठता है। प्रसन्न-चित्त हो कर खिल-खिल उठता है। कुमुद- कुसुम का शशि के प्रति प्रेम जगत प्रसिद्द है , शशि में भी अत्यधिक विह्वलता है। कबीर ने भी इन दोनों की गहन आतुरता को रेखांकित किया है। शशि और कुमुद कुसुम परस्पर - स्नेहिल रहते हैं। दोनों के प्रेम की आतुरता समस्त दूरी को मिटा देती है। आकाश से ऊंचा और धरती से गहरा कुछ नहीं। दोनों में अतुल - अभेद सम्बन्ध है। दोनों में प्रेम- भाव अतीन्द्रिय - बोध को प्रस्तुत करता है। वीतरागीय रागात्मकता का यह अनुपम उदाहरण है। प्रेम- सम्बन्ध शरीरी एवं राग- रंजित जब होता है, तो धरा को अमृतमय बना देता है। इस प्रकार के सम्बन्ध रागातीत होते चले जाते हैं और सम्पूर्ण सृष्टि को अपनी लालिमा से अनुप्राणित करते चले जाते हैं। वस्तुत: यही सात्विक बल होता है , जो शशि का सुधा - वर्षण बन कुसुम को आकर्षित करता है। कुछ औषधियां चन्द्र- तापी होती हैं और वे शशि के ताप से ही वृद्धि को पाप्त करती हैं। समस्त प्रकार के पुष्प और फल और विविध कुसुम शशि की सुधा से स्निग्ध होते हैं। शशि और कुसुम एक दूसरे के पूरक एवं अन्योन्याश्रित ही जाते हैं। यह उभय-निष्ठ प्रेमाभिव्यक्ति तन की ही , अपितु मन को भी ऊर्ध्वमुखी बना देती है। जहाँ शशि - बल है कुसुम का , वहां कुसुम भी शशि का बल है। यही प्रेम का उन्माद और बावलापन है। इसी उन्माद में दोनों परस्पर रोमांचित होकर नये दिशा- बोध एवं व्याप्ति को प्राप्त करते हैं । बोध ज्ञान का प्रतीक है तो व्याप्ति सार्वभौम प्रवृत्ति का निदर्शन है। सार्वभौमिकता " सर्वे भवन्तु: सुखिन:" की भावना को जहाँ रूपायित करती है, वहां वह " सर्वे भवन्तु: निरामया: " के माध्यम से सबकी स्वस्थ - स्वस्ति स्थिति की सदा प्रार्थना की गयी है। वैदिक प्रार्थना में "जीवेम: शरद: शतम " कहा गया है। साथ- साथ यह भी कहा गया है कि सौ - सौ वर्षों तक सुख - पूर्वक जीयें , पर" अदीना: स्याम "भी रहें अर्थात शरीर और मन दोनों से पूर्ण स्वस्थ रहें तथा हम किसी के अधीन न हों , पराधीन न रहें। यही वैदिक प्रार्थना है कि " मा कश्चित् दुःख मा भवेत" अर्थात कोई व्यक्ति दुखी न रहे। इसी का जय- घोष सदा- सदा के लिए कुसुम एवं शशि का शाश्वत सम्बन्ध करता है। यह शाश्वतता ही नैरन्तर्य - बोध का प्रतीक है। प्रकृति एवं सृष्टि की यह अनुपम स्वीकृति है।

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