विदुषी
लेबल: वन्दिता
लेबल: वन्दिता
लेबल: धर्म
लेबल: विदूषी
कुसुम का बल शशि है या शशि का बल कुसुम है, बात एक ही है क्योंकि दोनों परस्पर सम्बद्ध इतने हैं कि उनमें अंतर करना सहज नहीं है। कुसुम और शशि में अत्यधिक आत्मीयता रही है, और यह सदा - सनातन है। कुमुद रूपी कुसुम शशि को प्राप्त करते ही प्रफुल्लित हो उठता है। प्रसन्न-चित्त हो कर खिल-खिल उठता है। कुमुद- कुसुम का शशि के प्रति प्रेम जगत प्रसिद्द है , शशि में भी अत्यधिक विह्वलता है। कबीर ने भी इन दोनों की गहन आतुरता को रेखांकित किया है। शशि और कुमुद कुसुम परस्पर - स्नेहिल रहते हैं। दोनों के प्रेम की आतुरता समस्त दूरी को मिटा देती है। आकाश से ऊंचा और धरती से गहरा कुछ नहीं। दोनों में अतुल - अभेद सम्बन्ध है। दोनों में प्रेम- भाव अतीन्द्रिय - बोध को प्रस्तुत करता है। वीतरागीय रागात्मकता का यह अनुपम उदाहरण है। प्रेम- सम्बन्ध शरीरी एवं राग- रंजित जब होता है, तो धरा को अमृतमय बना देता है। इस प्रकार के सम्बन्ध रागातीत होते चले जाते हैं और सम्पूर्ण सृष्टि को अपनी लालिमा से अनुप्राणित करते चले जाते हैं। वस्तुत: यही सात्विक बल होता है , जो शशि का सुधा - वर्षण बन कुसुम को आकर्षित करता है। कुछ औषधियां चन्द्र- तापी होती हैं और वे शशि के ताप से ही वृद्धि को पाप्त करती हैं। समस्त प्रकार के पुष्प और फल और विविध कुसुम शशि की सुधा से स्निग्ध होते हैं। शशि और कुसुम एक दूसरे के पूरक एवं अन्योन्याश्रित ही जाते हैं। यह उभय-निष्ठ प्रेमाभिव्यक्ति तन की ही , अपितु मन को भी ऊर्ध्वमुखी बना देती है। जहाँ शशि - बल है कुसुम का , वहां कुसुम भी शशि का बल है। यही प्रेम का उन्माद और बावलापन है। इसी उन्माद में दोनों परस्पर रोमांचित होकर नये दिशा- बोध एवं व्याप्ति को प्राप्त करते हैं । बोध ज्ञान का प्रतीक है तो व्याप्ति सार्वभौम प्रवृत्ति का निदर्शन है। सार्वभौमिकता " सर्वे भवन्तु: सुखिन:" की भावना को जहाँ रूपायित करती है, वहां वह " सर्वे भवन्तु: निरामया: " के माध्यम से सबकी स्वस्थ - स्वस्ति स्थिति की सदा प्रार्थना की गयी है। वैदिक प्रार्थना में "जीवेम: शरद: शतम " कहा गया है। साथ- साथ यह भी कहा गया है कि सौ - सौ वर्षों तक सुख - पूर्वक जीयें , पर" अदीना: स्याम "भी रहें अर्थात शरीर और मन दोनों से पूर्ण स्वस्थ रहें तथा हम किसी के अधीन न हों , पराधीन न रहें। यही वैदिक प्रार्थना है कि " मा कश्चित् दुःख मा भवेत" अर्थात कोई व्यक्ति दुखी न रहे। इसी का जय- घोष सदा- सदा के लिए कुसुम एवं शशि का शाश्वत सम्बन्ध करता है। यह शाश्वतता ही नैरन्तर्य - बोध का प्रतीक है। प्रकृति एवं सृष्टि की यह अनुपम स्वीकृति है।
लेबल: अनुपम
सौरभ सुगंध का पर्यायवाची है, यश, कीर्ति एवं वैभव को विस्तारित करने वाला है। इसको खुशबु और महक के नाम से भी जाना जाता है। एक कवि ने कहा है--"व्याकुल उस मधु सौरभ से मलयानिल धीरे - धीरे "। सौरभ को आंसू भी कहा गया है ; क्योंकि आंसू भी मन के भाव को अभिव्यक्त करने का एक साधन है। आंसू के माध्यम से व्यक्ति अपने दुःख को संयोजित कर अपनी संवेदना को प्रशस्त कर अक्षय कीर्ति का संभागी बनता है। वह अपने भाव को सामाजिक समरसता प्रदान करता है। सौरभ को केसर भी कहा जाता है । केसर जहाँ सुगंध का वाची है , वहां वह रंग में प्रेम , सात्विकता और बलिदान का सूचक है। इसके साथ-साथ यह आध्यात्मिकता में परम- प्रिय के संयोग का भी प्रतीक है। आम को भी सौरभ का प्रतीक माना गया है। आम का वृक्ष धार्मिक दृष्टि से जहाँ पवित्र माना गया है ; वहां इसके पत्तों का बन्दनवार में प्रयोग किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान में इसके प्रयोग के पीछे प्रमुख कारण यह है कि इस वृक्ष पर कभी भी पतझढ़ नहीं आता। यह प्रकृति का अद्भुत उपहार है। सदैव खिलने वाला यह वृक्ष प्रकृति के सौरभ का श्रृंगार है। छंद - रचना में सौरभ एक वर्ण -वृत्त है ; जिसमें वेदों कि अनेक रचनाओं का विस्तार हुवा है। वस्तुत: सौरभ एक विविध आयामी शब्द - योजना है। यह प्रकृति के सार- तत्त्व को प्रस्तुत करता है। सौरभ से अपने मन की सुगंधी को विस्तारित किया जा सकता है। सौरभ का साक्षात् सम्बन्ध नासिका अर्थात प्राण- तत्त्व से है। इसी प्राण- योजना को महा-प्राण से संयोजित कर सौरभ -मय बनाया जा सकता है ।
लेबल: प्राण
लेबल: आदर्श
लेबल: अन्विता
लेबल: चित्त
सिध्दांत और अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"
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