शुक्रवार, 4 जून 2010

विदुषी

विदुषी पंडिता स्त्री को कहा जाता है। भारतीय साहित्य में अनेक विदुषी महिलाओं का वर्णन प्राप्त होता है। नारी को संसार का सबसे बहुमूल्य रत्न कहा गया है। वेद के अनुसार नारी को परिवार रूपी वृत्त का व्यास अथवा ध्रुव - बिंदु कहा गया है। वैदिक युग में पुरुषों के समान नारी को भी यज्ञादि अनुष्ठान करने और वेदादि शात्रों के पठन- पाठन का पूर्ण अधिकार था। अर्थात नारी विदुषी हुवा करती थी। ऋग्वेद के अनुसार उपनयन - यज्ञोपवीत संस्कार भी होता था। " यज्ञे दधे सरस्वती " का तात्पर्य -- सरस्वती के रूप में नारी ही है। वैसे भी विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती और शारदा ही हैं ; यह भी नारी के विदुषी होने का सर्वप्रमुख प्रमाण ही है। वैदिक ऋषियों में घोषा , विश्ववारा आदि तथा उपनिषदों में गार्गी ,मैत्रेयी आदि विदुषी नारियों का उल्लेख मिलता है। व्याकरण,दर्शन एवं शास्त्रों को पढ़ाने वाली विदुषी नारी को उपाध्याया और आचार्या के गौरवपूर्ण विशेषण दिए गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वैदिक युग में नारी का स्थान एक प्रकार से पुरूष से भी ऊंचा माना जाता था ; उस समय नारी का विदुषी रूप उभर कर आता था। वेद में नारी को सम्राज्ञी और पुरन्ध्री आदि कह कर उसे गौरवान्वित किया गया है। जिस कुल में नारी कि पूजा होती है , अर्थात उसका सत्कार होता है, उस कुल में दिव्य गुण , दिव्य भोग दिव्य संतान का वास होता है। जिस कुल में इनकी पूजा नहीं होती ; उस कुल के सुख - प्राप्ति के सभी उपाय निष्फल होजाते हैं। यथा --- " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: । यत्र नास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला : क्रिया:॥ " वैदिक पुरुष वैदिक विदुषी नारी को ऋचा के समतुल्य मानता है। साथ ही वह उसे पृथ्वी के समान धृति - सम्पन्न एवं क्षमा- शीला भी स्वीकार करता है। नारी के विदुषी रूप को स्पष्ट करते हुवे मनु महाराज का कथन है कि --- दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य , सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और हजार पिताओं की अपेक्षा माता का महत्त्व अधिक होता है। उपनिषदों में नारी को अग्नि- स्वरूपा कहा गया है। वास्तव में पुरुष और नारी एक ही तेज की दो ज्योतियाँ हैं। यदि पुरुष जीव रूप में विचरण करता है तो नारी बुद्धि बन कर उसे सहयोग प्रदान करती है; यह नारी के तेजस्विता एवं विदुषी-मय स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। पुरुष यदि क्रोध है तो नारी शांति है, नर यदि नद है तो नारी नदी है ; नर यदि भर्ता है तो नारी भार्या है ; नर यदि गृहपति है तो नारी गृहलक्ष्मी है। वास्तव में गृहलक्ष्मी की यह भावना ही नारी के उदात्त रूप को अनुभूति प्रदान करती है। "दुर्गा सप्तशती " में नारी विविध रूपों में वन्दनीय एवं वन्दिता है। मातृरूप जहाँ विशेष रूप से अभिव्यक्त हुवा है वहां बुद्धि रूप में उसकी प्रार्थना कर उसके विदुषी रूप की अभ्यर्थना की गयी है। यहाँ तक माता को गुरु के रूप में स्वीकार क्या गया है। संस्कृत वांग्मय में ऐसे अनेक प्रसंग हैं , जिसमें नारी को त्रैलोक्य की माता , त्रिभुवन का आधार और शक्ति का स्रोत सिद्ध किया गया है। एक स्थल पर शिवजी ने पारवती के माध्यम से नारी के सम्बन्ध में यह कहा है कि नारी के समान न सुख है , न गति है , न भाग्य है, न राज्य है, न तप है, न तीर्थ है, न योग है, न जप है, न धन है और न मंत्र है। नारी के समान इस धरा- धाम पर न कुछ था , न है और न होगा। उन्हों ने नारी को पूजनीया एवं मनीषा में परम विदुषी स्वीकार क्या है। वेद में भी '' मात्रिमान पित्रिमान आचार्यवान पुरुषो वेद " के अनुसार माता को विदुषी के रूप में सर्वप्रथम गुरु बताया गया है। महाभारत में भी द्रौपदी और उत्तरा को पूर्ण विदुषी कहा गया है। विदुषी नारी ही श्रद्धेय है , यथा --- "नारी ! तुम श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग पगतल में । पीयूष - स्रोत - सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में॥ "

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विनम्र

विनम्र का अर्थ है-- विशेष रूप से नम्र। विनम्रता तभी सामने आएगी जब आदमी दूसरों के सामने एवं उनके आगे कुछ झुकेगा, उनके प्रति विशेष आदरभाव दिखलायेगा। विनम्रता यद्यपि शिष्टता का एक बहुत बड़ा और आवश्यक अंग है। तो भी दोनों के प्रयोग और स्वरूप में कुछ अंतर है। विनम्रता का उपयोग और प्रयोग उन्हीं क्षेत्रों में हो सकता है, जहाँ पद, मर्यादा, उम्र, शिक्षा आदि की कुछ समानता होती है। नौकर के सामने मालिक या शिष्य के सामने गुरु विनम्र नहीं हो सकता। इसका उचित प्रयोग मनुष्य का सामाजिक रहन- सहन चमका देता है और यह प्राय: शिष्टता से भी कुछ आगे बढ जाती है। शिष्टता में तो अवसर आने पर ही दूसरों को प्रसन्न तथा संतुष्ट किया जाता है , पर विनम्रता दूसरों को प्रसन्न एवं संतुष्ट करने के अवसर खोजा करती है। शिष्टता से हम इतना ही कर सकते हैं कि दूसरों को दुखी नहीं होने दें , पर विनम्रता हम दूसरों को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अपने उत्कृष्ट मानसिक तथा हार्दिक गुणों का भी परिचय देते हैं। भोजन के लिए अपने यहाँ कुछ मित्रों को बुला कर उनके खाने- पीने आदि की सब व्यवस्था अपने घर के अन्य सदस्यों से कराना तो शिष्टता है , पर हर मित्र के पास बार-बार जाकर उसकी आवश्यताएँ पूछना , उनकी हर आवश्यकता की पूर्ति का स्वयं और व्यक्तिगत तत्परता-पूर्ण ध्यान रखना आदि बातें विनम्रता के क्षेत्र में आती हैं। क्योंकि ऐसे व्यक्ति बडप्पन भूल कर अपने मित्रों एवं साथियों के आगे झुकते हैं। वैसे तो बोल- चाल विनय भी बहुत कुछ वही है, फिर विनय अपेक्षा कृत बहुत व्यापक अर्थ का सूचक है। विनय का सामान्यत: अर्थ अलग या दूर हो जाना है। पर बाद में विनय शब्द मनुष्य की एक विशिष्ट चारित्रिक , मानसिक और व्यावहारिक स्थित्ति का वाचक हो गया है । अच्छे कुल में उत्पन्न , गुणी, विद्वान् सुयोग्य व्यक्ति में मानवोचित विशेषताओं के साथ- साथ इन गुणों का बिलकुल भी जब अभिमान नहीं होता तब इस भाव को विनय कहते हैं। व्यवहार में विनय को नम्रता , लज्जा , संकोच आदि की नामों से भी जाना जाता है । हमारे शास्त्रों में विनय को अत्यधिक महत्व दिया गया है। विनय से ही विनयशील बनता है और विनम्र से विनम्रता का भाव - बोध होता है। विनय के माध्यम से व्यक्ति जब विद्या प्राप्त करता है तभी उसे योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति ही अपनी योग्यता के द्वारा धन की प्राप्ति करता है। धन से सीधा सुख नहीं, अपितु वह धन धर्म की प्राप्ति के लिए अर्जित करता है। धर्म के बाद ही विनम्र व्यक्ति सुख की अभिलाषा कर परम सुख एवं आनंद को प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार विनम्र व्यक्ति अपनी विद्या को योग्यता का आधार बनाकर धन को धर्म का आधार बनाता है। अतः विनम्र - भाव परम सुख की प्राप्ति करा सकता है।

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वन्दिता

वन्दिता स्त्री वाचक है। जिसकी वन्दना की जाती है ; वह वन्दिता होती है। वन्दिता प्रणाम करने योग्य होती है। वन्दिता की स्तुति की जाती है। वंदन योग्य ही वन्दिता होती है। वह आदर के योग्य एवं पूजित होती है। उसके प्रति पूज्य तथा पूजनीय भाव सदा बना रहता है। वंदना उसी की जाती है, जो हम से श्रेष्ठ होता है। वन्दनीय व्यक्ति अपने नाम , रूप और गुणों के कारण ही पूज्य होता है। वंदना करने वाला व्यक्ति अपने पूज्य का स्मरण उसके नाम से, उसके रूप और उसके गुणों से करता रहता है। वंदना करने से मन में विनम्र -भाव की अनुभूति होती है। विनम्रता के साथ- साथ समर्पण का भाव भी सहज रूप से आता है। वन्दिता ऊर्ध्वमुखी प्रवृत्ति की परिचायक होती है । विदूषी होने के कारण पूज्य होती है।विदूषी होने के साथ - साथ वन्दिता अपने विविध सत्कार्यों के द्वारा भी पूजित होती है। वन्दित जहाँ देव होते हैं , वहां देवी वन्दिता होती है। आराध्य देव , माता- पिता और गुरु सदा ही पूज्यनीय होते हैं। कहीं तो आराध्य देव से भी अधिक माता-पिता को वन्दनीय माना गया है। माता को धरती के समान गहरा और पिता को आकाश से भी ऊंचा माना गया है। कबीर ने तो गुरु को गोविन्द अर्थात प्रभु से भी श्रेष्ठ स्वीकार किया है। इनका प्रसिद्द दोहा है---" गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूँ पाय , बलिहारी गुरु आपनों गोविन्द दियो बताय ॥ " गुरु पर गोविन्द अर्थात प्रभु न्यौछावर है, क्योंकि प्रभु का मार्ग गुरु के माध्यम से ही प्राप्त होता है। जो पूजित की वंदना करता है , उसे सहज भाव से ही आयु , विद्या , यश और बल की प्राप्ति हो जाती है। यथा -- " अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन: , चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयु: विद्या यशोबलं ॥ " वस्तुत: वन्दनीय भाव का संयोजन जहाँ होता है , वहां शक्ति रूप में वन्दिता स्थित रहतीहै। वन्दिता शक्तिरूपा महा कल्यांकरिणी है , जो सदा मंगल- ही- मंगल करती है ।

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कुसुम का बल शशि

कुसुम का बल शशि है या शशि का बल कुसुम है, बात एक ही है क्योंकि दोनों परस्पर सम्बद्ध इतने हैं कि उनमें अंतर करना सहज नहीं है। कुसुम और शशि में अत्यधिक आत्मीयता रही है, और यह सदा - सनातन है। कुमुद रूपी कुसुम शशि को प्राप्त करते ही प्रफुल्लित हो उठता है। प्रसन्न-चित्त हो कर खिल-खिल उठता है। कुमुद- कुसुम का शशि के प्रति प्रेम जगत प्रसिद्द है , शशि में भी अत्यधिक विह्वलता है। कबीर ने भी इन दोनों की गहन आतुरता को रेखांकित किया है। शशि और कुमुद कुसुम परस्पर - स्नेहिल रहते हैं। दोनों के प्रेम की आतुरता समस्त दूरी को मिटा देती है। आकाश से ऊंचा और धरती से गहरा कुछ नहीं। दोनों में अतुल - अभेद सम्बन्ध है। दोनों में प्रेम- भाव अतीन्द्रिय - बोध को प्रस्तुत करता है। वीतरागीय रागात्मकता का यह अनुपम उदाहरण है। प्रेम- सम्बन्ध शरीरी एवं राग- रंजित जब होता है, तो धरा को अमृतमय बना देता है। इस प्रकार के सम्बन्ध रागातीत होते चले जाते हैं और सम्पूर्ण सृष्टि को अपनी लालिमा से अनुप्राणित करते चले जाते हैं। वस्तुत: यही सात्विक बल होता है , जो शशि का सुधा - वर्षण बन कुसुम को आकर्षित करता है। कुछ औषधियां चन्द्र- तापी होती हैं और वे शशि के ताप से ही वृद्धि को पाप्त करती हैं। समस्त प्रकार के पुष्प और फल और विविध कुसुम शशि की सुधा से स्निग्ध होते हैं। शशि और कुसुम एक दूसरे के पूरक एवं अन्योन्याश्रित ही जाते हैं। यह उभय-निष्ठ प्रेमाभिव्यक्ति तन की ही , अपितु मन को भी ऊर्ध्वमुखी बना देती है। जहाँ शशि - बल है कुसुम का , वहां कुसुम भी शशि का बल है। यही प्रेम का उन्माद और बावलापन है। इसी उन्माद में दोनों परस्पर रोमांचित होकर नये दिशा- बोध एवं व्याप्ति को प्राप्त करते हैं । बोध ज्ञान का प्रतीक है तो व्याप्ति सार्वभौम प्रवृत्ति का निदर्शन है। सार्वभौमिकता " सर्वे भवन्तु: सुखिन:" की भावना को जहाँ रूपायित करती है, वहां वह " सर्वे भवन्तु: निरामया: " के माध्यम से सबकी स्वस्थ - स्वस्ति स्थिति की सदा प्रार्थना की गयी है। वैदिक प्रार्थना में "जीवेम: शरद: शतम " कहा गया है। साथ- साथ यह भी कहा गया है कि सौ - सौ वर्षों तक सुख - पूर्वक जीयें , पर" अदीना: स्याम "भी रहें अर्थात शरीर और मन दोनों से पूर्ण स्वस्थ रहें तथा हम किसी के अधीन न हों , पराधीन न रहें। यही वैदिक प्रार्थना है कि " मा कश्चित् दुःख मा भवेत" अर्थात कोई व्यक्ति दुखी न रहे। इसी का जय- घोष सदा- सदा के लिए कुसुम एवं शशि का शाश्वत सम्बन्ध करता है। यह शाश्वतता ही नैरन्तर्य - बोध का प्रतीक है। प्रकृति एवं सृष्टि की यह अनुपम स्वीकृति है।

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मंगलवार, 1 जून 2010

सौरभ

सौरभ सुगंध का पर्यायवाची है, यश, कीर्ति एवं वैभव को विस्तारित करने वाला है। इसको खुशबु और महक के नाम से भी जाना जाता है। एक कवि ने कहा है--"व्याकुल उस मधु सौरभ से मलयानिल धीरे - धीरे "। सौरभ को आंसू भी कहा गया है ; क्योंकि आंसू भी मन के भाव को अभिव्यक्त करने का एक साधन है। आंसू के माध्यम से व्यक्ति अपने दुःख को संयोजित कर अपनी संवेदना को प्रशस्त कर अक्षय कीर्ति का संभागी बनता है। वह अपने भाव को सामाजिक समरसता प्रदान करता है। सौरभ को केसर भी कहा जाता है । केसर जहाँ सुगंध का वाची है , वहां वह रंग में प्रेम , सात्विकता और बलिदान का सूचक है। इसके साथ-साथ यह आध्यात्मिकता में परम- प्रिय के संयोग का भी प्रतीक है। आम को भी सौरभ का प्रतीक माना गया है। आम का वृक्ष धार्मिक दृष्टि से जहाँ पवित्र माना गया है ; वहां इसके पत्तों का बन्दनवार में प्रयोग किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान में इसके प्रयोग के पीछे प्रमुख कारण यह है कि इस वृक्ष पर कभी भी पतझढ़ नहीं आता। यह प्रकृति का अद्भुत उपहार है। सदैव खिलने वाला यह वृक्ष प्रकृति के सौरभ का श्रृंगार है। छंद - रचना में सौरभ एक वर्ण -वृत्त है ; जिसमें वेदों कि अनेक रचनाओं का विस्तार हुवा है। वस्तुत: सौरभ एक विविध आयामी शब्द - योजना है। यह प्रकृति के सार- तत्त्व को प्रस्तुत करता है। सौरभ से अपने मन की सुगंधी को विस्तारित किया जा सकता है। सौरभ का साक्षात् सम्बन्ध नासिका अर्थात प्राण- तत्त्व से है। इसी प्राण- योजना को महा-प्राण से संयोजित कर सौरभ -मय बनाया जा सकता है ।

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समर्थ

समर्थ का भाव- वाचक रूप सामर्थ्य है । सम अर्थात समान अर्थ होने की अवस्था का भाव सामर्थ्य है । सामर्थ्य का प्रयोग सदा मनुष्यों या अधिक से अधिक जीव- जन्तुओं तक के सम्बन्ध में होता है, वस्तुओं आदि के सम्बन्ध में नहीं। क्योंकि यह मुख्यत: आर्थिक, मानसिक , शारीरिक , आदि शक्तियों पर आधारित होता है और परिस्थितियों के अनुसार घटता- बढ़ता रहता है। किसी कार्य का विशिष्ट प्रकार कर सकने का जो गुण या बल होता है , उसी का सूचक सामर्थ्य है। सक्षम या समर्थ होने की अवस्था एवं योग्यता का रूप सामर्थ्य है। सम - भाव ही जिसका अर्थ है वही समर्थ है। सुख - दुःख , लाभ- हानि, जय- पराजय आदि में जो समता भाव रखता है , वही समर्थ है। अर्जुन के समान जो युद्ध में स्थिर रहता है वही समर्थ है। वह कर्म - क्षेत्र से कभी भी पलायन नहीं करता। समर्थ व्यक्ति तन से जहाँ समर्थ होता है , वह वहां मन से भी समर्थ होता है। प्राण- चेतना भी उसे सदैव समर्थ बनाती रहती है। सत- चित- आनन्द ही समर्थ का पूर्ण उद्देश्य होता है। चार पुरुषार्थ अर्थात अर्थ से संयुक्त व्यक्ति ही समर्थ होता है। वह धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की सिद्धि में समर्थ होता है। समर्थ व्यक्ति पूर्ण रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है। जिस प्रकार भगवान राम ने सम- अर्थ भाव रखा और उन्होंने राज्याभिषेक एवं वनवास को सम- अर्थ में ही ग्रहण किया। परिणामत: वे हमारे आदर्श बन गये। समर्थ व्यक्ति आदर्श ही बन जाता है।

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रजनीश

रजनीश चंद्रमा को कहते हैं। रजनीश रजनी का स्वामी और अधिपति होता है। संध्या को रजनी-मुख कहा जाता है ; चन्द्रमा का हमारी सृष्टि में बहुत महत्त्व है। अनेक ओषध चन्द्र- तापी होती हैं, वे सुधाकर चन्द्र की सुधा में ही पुष्ट होती हैं। ये मन और बुद्धि का विकास करने वाली होती हैं। मन को चंद्रमा भी कहा गया है। सब प्रकार के अन्न के उत्पादन में भी चंद्रमा की अहं भूमिका है। चन्द्रमा शीतल एवं सुखदायी होता है ; वह सभी को अपने प्रेम-पाश में बांध लेता है। चन्द्रमा की अभिव्यक्ति सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है।वह दिशिता - बोध भी करता है। साथ ही वह शुक्ल- कृष्ण पक्ष की अन्विता से युक्त है। अमावस्या के बाद वह पुन: जन्म लेता है और पूर्णमासी तक अपने सौंदर्य को परिपुष्ट क़र कलाधर बन जाता है। एक मास में दो बार जन्म लेने के कारण चन्द्रमा को द्विज कहा जाता है। द्विज-प्रकृति के व्यक्ति अत्यधिक मनस्वी ,मेधावी ,जन्मत: सुसंस्कृत होते हैं।हमारे सभी पर्व-त्यौहार एवं मास चन्द्र पर ही आधारित हैं। योगी प्राणों को चन्द्र द्वारा ही पुष्ट करता है ; योग में चन्द्र नाड़ी का बहुत महत्त्व है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार चन्द्रमा एक उपग्रह है। चंद्रमा हमारी पकड़ में भी आ गया है, वह हम से दूर नहीं रहा। पुराण के अनुसार ये अत्रि और अनसूया के पुत्र हैं। यह समुद्र-मंथन से निकले चौदह रत्नों में से एक है। इसी कारण इसे लक्ष्मीका भाई एवं समुद्र-पुत्र भी कहते हैं। इनका विवाह दक्ष की सताईस कन्याओं से हुवा था। वे अपनी पत्नी रोहिणी पर विशेष प्रेम करते थे। इसी कारण दक्ष प्रजापति ने इन्हें शाप दिया; देवताओं ने चन्द्रमा के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना की। इस पर दक्ष ने कहा कि चन्द्रमा का १५ दिन क्षय और १५ दिन वृद्धि होगी। शिव ने हलाहल विष की शांति के लिए इन्हें अपने सिर पर धारण किया। परिणामत: शिव सोमनाथ कहलाये। ये अपने गुरुबृहस्पति की पत्नी को हर लाये थे , जिनसे इन्हें बुध नामक पुत्र प्राप्त हुवा था। चन्द्रमा सुन्दरता और शीतलता के प्रतीक हैं। इसके प्रमुख पर्यायवाची हैं-- सोम, सुधाधर,इंदु, सुधाकर,हिमांशु, शशि,शशधर, शशांक, मृगांक, नक्षत्रेश, कुमुद-बांधव,क्षपाकर, निशापित, विधु, कलानिधि, द्विजराज, सुधानिधि, कलंकधर, उद्दुप, राकापति, अम्रितद्युती,रजनीश आदि। इसमें रजनीश नाम सृष्टि की उत्पादन- धर्मिता के साथ- साथ सौन्दर्य - बोध का भी संयुक्त रूप है।

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चैतन्य- केंद्र प्रेक्षा

चैतन्य- केंद्र प्रेक्षा की मुख्य निष्पत्तियां हैं--भावों का परिष्कार , स्वभाव एवं आदतों में परिवर्तनं , ज्ञान , आनंद ,और शक्ति का जागरण। हमारे शरीर में कुछ ऐसे स्थान हैं , जहाँ चैतन्य दूसरे अवयवों की अपेक्षा अधिक सघन होता है। इसलिए इन्हें चैतन्य केन्द्रों की संज्ञा दी गयी है। हमारे शरीर के दो मुख्य तंत्र हैं--एक नाड़ी-तंत्र और दूसरा ग्रंथि- तंत्र । नाड़ी -तंत्र में हमारी सारी वृत्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं, ये अनुभव में आकर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार अनुभव एवं अभिव्यक्ति ये नाड़ी - तंत्र के कार्य हैं। किन्तु आदतों का जन्म ग्रंथि -तंत्र में ही होता है। ये ही आदतें मष्तिष्क तक पहुंचती है, अभियक्त होती है। चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा करने से अंत:स्रावी ग्रंथियों के साथ परिष्कृत होते हैं। चित्त का यह स्वभाव है कि वह सिर से लेकर पैर तक चक्कर लगाता रहता है। हृदय , कंठ , और मष्तिष्क -- ये तीन स्थान साधना में बहुत उपयोगी हैं। हृदय आनन्द - केंद्र, कंठ विशुद्धि - केंद्र और मष्तिष्क ज्ञान - केंद्र है चैतन्य केंद्र का प्रारम्भ शक्ति- केंद्र कि प्रेक्षा से होता है और एक-एक चैतन्य केंद्र की प्रेक्षा करते हुवे ज्ञान-केंद्र तक चित्त की यात्रा की जाती है।

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शुक्रवार, 28 मई 2010

बोधि

सिध्दांऔर अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"

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मंगलवार, 25 मई 2010

समथ और विपश्यना

समथ और विपश्यना अत्यंत दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।समथ का तात्पर्य है- चित्त की ऐसी एकाग्रता ,सूक्ष्मता और तीक्ष्णता , जो गहराइयों तक सच्चाइयों को जन ले। विपश्यना का अर्थ है - तटस्थता एवं समता का भाव। अर्थात मन जरा -सा भी विचलित न हो। जिस तरहःजैस तटस्थ हो कर नदी के प्रहाव को देखते हैं, उसी प्रकार साक्षी भाव से शरीर को देखना है। अनुभूतियों द्वारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करें। परोक्ष ज्ञान बांधता है , प्रत्यक्ष ज्ञान मुक्त करता है। हम प्राय: दर्शन की बातें ही करते हैं, जब कि दर्शन का अर्थ है साक्षात्कार , जो केवल अनुभूति से ही प्राप्त होता है। लेकिन दर्शन को फिलोसफी बनाकर कोरे ज्ञान की चर्चा में उलझें रहते हैं। तथा इस पर बहस वाद-विवाद आदि करते रहते हैं। हल्के -से-हल्के और भारी-से-भारी तक का वजन का सारा क्षेत्र पृथ्वी धातु को अनुभव करने का क्षेत्र है। अग्नि धातु का क्षेत्र है शीतल -से शीतल और गर्म -से-गर्म की सारी अवस्था _अर्थात तापमान का पूरा क्षेत्र अग्नि धातु का क्षेत्र है। इसी प्रकार हलन-चलन का सारा क्षेत्र वसायु धातु का क्षेत्र है और जल धातु का क्षेत्र नमी द्वारा बांधना, संयोजित करना एवं संश्लिष्ट करना है।विपश्यना का अभ्यास करते हुए हमें शरीर में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूतियाँ होती हैं , जब कभी पृथ्वी तत्त्व धातु प्रबल होकर आती है ; तब कहीं भारी लगता है तो कहीं हल्का लगता है। जब वायु धातु प्रबल होकर आती है ,तो किसी प्रकार की हलन-चलन ,तरंग या धढ़कन का अनुभव होता है। हर एक धातु अपने-अपने स्वभाव को प्रकट करती है। उदहारण के लिए ठोस बर्फ पृथ्वी ,पिघल कर पानी भाप बन कर हवा ,पर तीनों ही अवस्था में उस में तापमान है। जैसा शरीर को आहार दिया जाता है ,वैसे ही परमाणु बनते हैं ।मिर्च-मसाले अग्नि-तत्व का प्रभाव रखते हैं। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन पृथ्वी का द्योतक होता है। अस्वस्थ भोजन शरीर को भी अस्वस्थ करता है। जिस क्षण हम जो संस्कार बनाते हैं, चेतना की धारा का उस क्षण का वही आहार है। इस क्षण के संस्कार से ही अगले क्षण का विज्ञानं यानि चित्त उत्पन्न होता है।

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आसक्ति

आसक्ति अत्यधिक दुखदायी है ।यानी तृष्णा अपने आप में व्याकुलता है। तृष्णा माने जो अपने पास है, उससे तृप्ति नहीं और जो नहीं है, उसे पाने को व्याकुल है। साधना करते-करते स्वयम अनुभव होगा कि तृष्णा कैसे जगती है। शरीर में जो पीड़ाहो रही है , वह अपने आप में दुखदायी नहीं है , लेकिन उसे दूर करने की तृष्णा कई गुना दुखदायी होती है । आसक्ति और दुःख दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ आसक्ति है , वहां दुःख है , जितनी आसक्ति उतना दुःख , यह प्रकृति का अटूट नियम है। आसक्ति के चार प्रकार हैं, एक तृष्णा की आसक्ति है। तृष्णा की आसक्ति सदैव विद्यमान रहती है। वह फूटी बाल्टी के समान है ,जो कभी भरती नहीं है ;वह सदा रिक्त ही रहती है। दूसरी आसक्ती मैं और मेरे प्रति है। जानते ही नहीं कि मैं क्या हूँ और मेरा क्या है ?एक आसक्ती अपने दर्शन के प्रति और अपनी परम्परागत मान्यताओं के प्रति है। एक अन्य आसक्ती अपने कर्म-कांडों के प्रति होती है। हर संस्कार नया विज्ञानं यानि अगले क्षण की नई चेतना पैदा करता है। अविद्या से ही संस्कार बनते हैं , अविद्या का अर्थ है अविज्ञान ,अज्ञान, बेहोशी, विमूढ़ता। यह अविद्या ,यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जढ़ से काटें। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी ,प्रज्ञा का अर्थ है प्रत्यक्ष -ज्ञानजब-जब वेदना जागे, तब-तब हर वेदना प्रज्ञा जगाये --अनित्य है , नश्वर है। देख तो सही इसे। राग पैदा मत कर। द्वेष पैदा मत कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नये संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं , पुराने संस्कार भी कटने लगते हैं। "मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान । कायिक वाचिक करम तो, मन ही की सन्तान।। "....इति=+

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दु:ख आर्य-सत्य

दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इति=+

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गुरुवार, 20 मई 2010

अन्विता

अन्विता से तात्पर्य संयुक्त्त होने से है । संयुक्त किस से होना और क्यों ? आत्मा -परमात्मा से संयुक्त स्थिति को भी अन्विता के रूप में देखा जा सकता है । पहले अन्विता का व्याकरणिक स्वरूप को देखना चाहिए । व्याकरणिक दृष्टि से जिसका अन्वय हुवा हो ,उसे अन्विता कहा जाता है । अर्थ की दृष्टि से अन्विता परस्पर सम्बन्ध ,मेल ,वाक्य की शब्द -योजना ,वंश , कुल आदि के लिए आता है । अन्विता जीवन में तारतम्यता को प्रस्तुत करती है ,तारतम्यता का तात्पर्य जीवन में सूत्रबद्धता से है । जीवन में प्रत्येक कार्य सुनियोजित एवं सुसम्बद्ध करना ही अन्विता का भाव प्रकट करता है । कार्य-कारण की स्थिति का न्याय स्पष्ट्त: संकेत करता है कि बिना कारण के कोई कार्य कभी भी नहीं हो सकता । जैसे स्पष्ट है कि बिना बादल के बरसात नहीं होती ; धूप है तो सूर्य भी है। उसी प्रकार प्रत्येक प्रत्यक्ष कार्य का कोई न कोई अवश्य ही अप्रत्यक्ष कारण होता है। यह न्याय ही अन्विता-बोध है । एक तरह से एक बात की सिद्धि से दूसरी बात की सिद्धि - योग ही अन्विता -सूचक है। एकतानता का अर्थात यूनिटी का रूप भी अन्विता है। अन्विता दुर्गा का भी एक नाम है। क्योंकि दुर्गा ही व्यक्ति को प्रेरित है कि वह काली माई का वीभत्स रूप छोढ़कर सात्विक दुर्गम रूप धारण करे , सत मार्ग पर चलना कोई सहज कार्य नहीं है ,सत और असत में अन्वित्त -बोध ही अन्विता है ।

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दिशिता

दिशिता का अर्थ दिशा की तारतम्यता से है । दिशा के लिए दिश तथा दिक् भी प्रयोग में आता है । नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार को दिशा कहा जाता है । ओर संज्ञा भी दिशा के लिए प्रयुक्त होती है । क्षितिज -वृत्त के चार विभाग किए गये हैं । इन्हें पूर्व ,पश्चिम ,उत्तर तथा दक्षिण दिशा कहा गया है । क्रमश: प्रत्येक दो दिशाओं में एक- एक कोण भी दी गये हैं । ये कोण अग्नि ,नेरृति ,वायु और ईश नाम से जाने जाते हैं । एक दिशा ऊर्ध्व और दूसरी दिशा अध: होती है , पहली दिशा का पालक देवता ब्रह्मा और दूसरी दिशा का पालक देवता अनंत है । इस प्रकार दस दिशाएं हैं । दिशाओं में से किसी एक दिशा को अपना लक्ष्य बना कर प्रगति करनी होती है । सही दिशा का चयन एक बहुत महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है । अन्यथा दिग-भ्रम की स्थिति हो जाती है । स्व-केंद्र स्वयं निर्धारित करना होता है । स्वयं अपनी दिशा को निर्धारित कर प्रगति करनी होती है । इस स्थिति - मन में लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती है । दिशा-वृत्त में केंद्र-बिंदु बन कर दिशा की तारतम्यता बनाये रखना ही दिशिता है । इसे ही दिशा -बोध कहा जा सकता है । निश्चित लक्ष्य,पक्का इरादा ,दूर -दृष्टि ही दिशिता का पूर्ण मंतव्य है । उचित दिशा-बोध ही वस्तुत: है--- दिशिता

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बुधवार, 19 मई 2010

ऋत- सत्य

ऋत सत्य का सार्वभौमिक रूप है । ऋत के अमृत से ही व्यक्ति जीवित रहता है ,यह उसे अमृतत्व प्रदान करता है। लोक अर्थात संसार में जीव ऋत का पान करता हुवा पुण्य को प्राप्त करता है ,उसे यश की प्राप्ति होती है। ऋत ही एक अक्षर है ,जो ब्रह्म के समकक्ष है । ऋत सत्य के आचरण के लिए ही होता है । ऋत एवं सत्य स्वाभाविक धर्म हैं ;ऋत की सिद्धि ही सत्य की सिद्धि है । ऋत और सत्य एक रूप हैं । ऋत ह्रदय को आकर्षित करने वाला होता है । ऋत और सत्य यदि एक हैं ,तो उनमें अंतर है भी या नहीं ? यह प्रश्न सहजत: उत्पन्न होता है । वस्तुत: ऋत और सत्य में सूक्ष्म और व्यापक अंतर भी है । प्रथम ऋत तो प्राकृतिक एवं स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है ;जबकि सत्य इन्द्रिय- जनित संबंधों पर ही आधारित होता है । इन्द्रिय- जनित ज्ञान की अपनी सीमा होती है ;यह ज्ञान सीमा - सापेक्ष होता है। यह सत्य इन्द्रिय -शिथिलता के कारण अधूरा ,अपूर्ण और असत्य भी हो सकता है। अंधों और हाथी की कहानी तो प्रसिद्ध ही है ;सत्य निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष होता है। जबकि ऋत एक स्वाभाविक, एक सहज तथा सतत रहने वाली प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक धर्म की अटल स्थिति है। सूर्य-चन्द्र के समान गणितीय निष्चल स्थिति है। सत्य सामान्य ज्योतिषीय गणना हो सकती है। जो ठीक भी हो सकता है ;सम्भावना तो है ही। ऋत आध्यात्मिक है तो सत्य सांसारिक है ;महत्त्व तो दोनों का ही है ।

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मंगलवार, 18 मई 2010

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति का अर्थ है --अपने को किसी भी माध्यम के द्वारा प्रस्तुत करना। अनुभूति को विस्तृत एवं विस्तारित करना ही अभिव्यक्ति है । सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष कारण का प्रत्यक्ष कार्य में अभिव्यक्ति होती है । जैसे बीज से अंकुर का आविर्भाव होता है । कलात्मक स्थिति का ही प्रसार अभिव्यक्ति के माध्यम से होता है । कला के दो भेद हैं --ललित और उपयोगी ।वास्तु , मूर्ति , चित्र ,संगीत और काव्य ये पांच ललित कलाएं हैं। ललित कलाओं में अमूर्त -आधार की मात्रा के अनुसार उनकी श्रेष्ठ स्थिति को स्वीकार किया गया है। उपयोगी कलाओं में समस्त प्रकार की कलाओं को स्थापित किया गया है। कलाओं में पूर्णता अभिव्यक्ति के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अनुभूति जहाँ विचार रूप में स्थित है ,वहां अभिव्यक्ति कलात्मक रूप में शिल्पाकार ग्रहण करती है। यह विचार को अभिव्यक्त करने वाली कला है । अनुभूति जब स्थिर हो शुद्ध चेतना का रूप धारण करती है । तब अभिव्यक्ति अपना प्रसार प्रारम्भ करती है । अनुभूति यदि बीज है तो अभिव्यक्ति उसका अंकुरित ,प्रस्फुटित ,पुष्पित ,प्रफुल्लित एवं फलित रूप है। अनभूति के द्वारा आंतरिक लोक की परम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । तो अभिव्यक्ति द्वारा इह लोक में यश ,कीर्ति , वैभव ,प्रसिद्धि तथा आनंद को प्राप्त की जा सकता है। मेरी अभिव्यक्ति ही मुझे यश दिला सकती है .... ।

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