शुक्रवार, 28 मई 2010

बोधि

सिध्दांऔर अभ्यास एक साथ मिलकर रहने चाहिएं। जीवन -भर बोधि की शरण मन ही जीयें , जो कम करें बोधि पूर्वक ही करें एवं समझदारी से ही करें। काया का काम, वाणी का काम बोधि के साथ करें , अपनी बोधि जगाते-जगाते हम भी मुक्त हो जाएँ , शुद्ध एवं बुद्ध हो जाएँ। यह बुद्धता ही वस्तुत:बुद्ध की शरण है। फिर संघ की शरण से तात्पर्य उन संतों की शरण है , जो बोधि प्राप्त कर चुके हैं। जो पञ्च - शील हैं, उनका पालन ही सच्चा धर्म है। यदि पञ्च-शील का पालन नहीं करेंगे तो हमारी समाधि सम्यक नहीं होगी और समाधि सम्यक नहीं हुई तो प्रज्ञा नहीं जाग पायेगी ,यदि प्रज्ञा नहीं जागेगी , तो विमुक्ति का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। किसी सच्चाई को भक्ति के भावावेश में मान लेना बहुत सरल है, पर किसी सच्चाई को अनुभूति के स्तर मान लेना अर्थात जानकर मान लेना कठिन काम है। हर शब्द की अपनी विशेषता है। शब्द एक टंकार पैदा करता है। एक तरंग पैदा करता है। जो बीज मंत्र है उसकी अपनी तरंग है। शब्दों द्वारा जो तरंग उत्पन्न होंगी , उसी में चित्त समाहित हो जायेगा। अत: नैसर्गिक तरंगों को देखने से वंचित रह जायेंगे। हमारा लक्ष्य केवल चित्त की एकाग्रता नहीं है , केवल समाधि नहीं है। लक्ष्य है--सम्यक समाधि, जिसका आधार राग ,द्वेष एवं मोह की स्थिति को समाप्त करना है।मात्र विषयों से कोई हानि नहीं होती , अपितु विकारों से हानि होती है। विषय हमारा क्या लेते हैं। शब्द,रूप,गंध,रस और स्पर्श अपनी-अपनी जगह हैं। पर चिंतन अपनी जगह है। इनके कारण विकार नहीं जगता। इन्द्रिय और विषय के स्पर्श से विकार जगता है। उसी पर राग और द्वेष पैदा होता है । प्रत्येक संवेदना के प्रति राग - द्वेष विहीन रहना है । अपने भीतर के अहं -भाव एवं अहंकार को निकालना होगा , यही अनात्म -भाव है , और तभी बोधी प्राप्त हो सकती है । --"धन्य भाग साबुन मिली , निर्मल पाया नीर । आओ धोएं स्वयं ही , मन के मैले चीर ॥"

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मंगलवार, 25 मई 2010

समथ और विपश्यना

समथ और विपश्यना अत्यंत दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।समथ का तात्पर्य है- चित्त की ऐसी एकाग्रता ,सूक्ष्मता और तीक्ष्णता , जो गहराइयों तक सच्चाइयों को जन ले। विपश्यना का अर्थ है - तटस्थता एवं समता का भाव। अर्थात मन जरा -सा भी विचलित न हो। जिस तरहःजैस तटस्थ हो कर नदी के प्रहाव को देखते हैं, उसी प्रकार साक्षी भाव से शरीर को देखना है। अनुभूतियों द्वारा प्रत्यक्ष साक्षात्कार करें। परोक्ष ज्ञान बांधता है , प्रत्यक्ष ज्ञान मुक्त करता है। हम प्राय: दर्शन की बातें ही करते हैं, जब कि दर्शन का अर्थ है साक्षात्कार , जो केवल अनुभूति से ही प्राप्त होता है। लेकिन दर्शन को फिलोसफी बनाकर कोरे ज्ञान की चर्चा में उलझें रहते हैं। तथा इस पर बहस वाद-विवाद आदि करते रहते हैं। हल्के -से-हल्के और भारी-से-भारी तक का वजन का सारा क्षेत्र पृथ्वी धातु को अनुभव करने का क्षेत्र है। अग्नि धातु का क्षेत्र है शीतल -से शीतल और गर्म -से-गर्म की सारी अवस्था _अर्थात तापमान का पूरा क्षेत्र अग्नि धातु का क्षेत्र है। इसी प्रकार हलन-चलन का सारा क्षेत्र वसायु धातु का क्षेत्र है और जल धातु का क्षेत्र नमी द्वारा बांधना, संयोजित करना एवं संश्लिष्ट करना है।विपश्यना का अभ्यास करते हुए हमें शरीर में विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूतियाँ होती हैं , जब कभी पृथ्वी तत्त्व धातु प्रबल होकर आती है ; तब कहीं भारी लगता है तो कहीं हल्का लगता है। जब वायु धातु प्रबल होकर आती है ,तो किसी प्रकार की हलन-चलन ,तरंग या धढ़कन का अनुभव होता है। हर एक धातु अपने-अपने स्वभाव को प्रकट करती है। उदहारण के लिए ठोस बर्फ पृथ्वी ,पिघल कर पानी भाप बन कर हवा ,पर तीनों ही अवस्था में उस में तापमान है। जैसा शरीर को आहार दिया जाता है ,वैसे ही परमाणु बनते हैं ।मिर्च-मसाले अग्नि-तत्व का प्रभाव रखते हैं। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन पृथ्वी का द्योतक होता है। अस्वस्थ भोजन शरीर को भी अस्वस्थ करता है। जिस क्षण हम जो संस्कार बनाते हैं, चेतना की धारा का उस क्षण का वही आहार है। इस क्षण के संस्कार से ही अगले क्षण का विज्ञानं यानि चित्त उत्पन्न होता है।

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आसक्ति

आसक्ति अत्यधिक दुखदायी है ।यानी तृष्णा अपने आप में व्याकुलता है। तृष्णा माने जो अपने पास है, उससे तृप्ति नहीं और जो नहीं है, उसे पाने को व्याकुल है। साधना करते-करते स्वयम अनुभव होगा कि तृष्णा कैसे जगती है। शरीर में जो पीड़ाहो रही है , वह अपने आप में दुखदायी नहीं है , लेकिन उसे दूर करने की तृष्णा कई गुना दुखदायी होती है । आसक्ति और दुःख दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ आसक्ति है , वहां दुःख है , जितनी आसक्ति उतना दुःख , यह प्रकृति का अटूट नियम है। आसक्ति के चार प्रकार हैं, एक तृष्णा की आसक्ति है। तृष्णा की आसक्ति सदैव विद्यमान रहती है। वह फूटी बाल्टी के समान है ,जो कभी भरती नहीं है ;वह सदा रिक्त ही रहती है। दूसरी आसक्ती मैं और मेरे प्रति है। जानते ही नहीं कि मैं क्या हूँ और मेरा क्या है ?एक आसक्ती अपने दर्शन के प्रति और अपनी परम्परागत मान्यताओं के प्रति है। एक अन्य आसक्ती अपने कर्म-कांडों के प्रति होती है। हर संस्कार नया विज्ञानं यानि अगले क्षण की नई चेतना पैदा करता है। अविद्या से ही संस्कार बनते हैं , अविद्या का अर्थ है अविज्ञान ,अज्ञान, बेहोशी, विमूढ़ता। यह अविद्या ,यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जढ़ से काटें। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी ,प्रज्ञा का अर्थ है प्रत्यक्ष -ज्ञानजब-जब वेदना जागे, तब-तब हर वेदना प्रज्ञा जगाये --अनित्य है , नश्वर है। देख तो सही इसे। राग पैदा मत कर। द्वेष पैदा मत कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नये संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं , पुराने संस्कार भी कटने लगते हैं। "मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान । कायिक वाचिक करम तो, मन ही की सन्तान।। "....इति=+

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दु:ख आर्य-सत्य

दु:ख आर्य-सत्य है ,यह मनुष्य के जीवन को दुखी बनाने वाला रोग है। जीवन में दुःख तो है ही , जीवन -जगत की यह पहली सच्चाई है। दुःख के पीछे कोई कारण है , यह दूसरी सच्चाई है । यदि कारण दूर कर लिया तो दुःख दूर हो ही गया । यों दुःख दूर करने एक तरीका है । यह तीसरी और चौथी सच्चाईयां हैं । चित्त की चेतना का एक खंड विज्ञानं जानने का काम करता है । दूसरा खंड संज्ञा पहचानने का काम करता है । तीसरा खंड वेदना संवेदनशील होनेका काम करता है और चौथा खंड संस्कार प्रतिक्रिया करने का काम करता है। अनुभूतियों के स्तर पर इस सारी प्रक्रिया को समझना है। जबतक दुःख को भोगते हैं ,दुःख का संवर्धन ही करते हैं, दुःख को बढ़ाते ही हैं।जब दुःख का दर्शन करने लगते हैं ,तो दुःख दूर होने लगता है। दुःख सत्य ,आर्य सत्य , बन जाता है। जो प्रिय है उसका वियोग हुए जा रहा है ,प्रिय व्यक्ति, प्रिय वस्तु , एवं प्रिय स्थिति सभी का ही वियोग होता जा रहा है । जो अप्रिय है उसका संयोग हुए जा रहा है अनचाही होती रहती है,मनचाही नहीं होती। जो कामना करता है,वह पूरी नहीं होती तो दुखी रहता है। यह जीवन -जगत की सच्चाई है।...इति=+

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गुरुवार, 20 मई 2010

अन्विता

अन्विता से तात्पर्य संयुक्त्त होने से है । संयुक्त किस से होना और क्यों ? आत्मा -परमात्मा से संयुक्त स्थिति को भी अन्विता के रूप में देखा जा सकता है । पहले अन्विता का व्याकरणिक स्वरूप को देखना चाहिए । व्याकरणिक दृष्टि से जिसका अन्वय हुवा हो ,उसे अन्विता कहा जाता है । अर्थ की दृष्टि से अन्विता परस्पर सम्बन्ध ,मेल ,वाक्य की शब्द -योजना ,वंश , कुल आदि के लिए आता है । अन्विता जीवन में तारतम्यता को प्रस्तुत करती है ,तारतम्यता का तात्पर्य जीवन में सूत्रबद्धता से है । जीवन में प्रत्येक कार्य सुनियोजित एवं सुसम्बद्ध करना ही अन्विता का भाव प्रकट करता है । कार्य-कारण की स्थिति का न्याय स्पष्ट्त: संकेत करता है कि बिना कारण के कोई कार्य कभी भी नहीं हो सकता । जैसे स्पष्ट है कि बिना बादल के बरसात नहीं होती ; धूप है तो सूर्य भी है। उसी प्रकार प्रत्येक प्रत्यक्ष कार्य का कोई न कोई अवश्य ही अप्रत्यक्ष कारण होता है। यह न्याय ही अन्विता-बोध है । एक तरह से एक बात की सिद्धि से दूसरी बात की सिद्धि - योग ही अन्विता -सूचक है। एकतानता का अर्थात यूनिटी का रूप भी अन्विता है। अन्विता दुर्गा का भी एक नाम है। क्योंकि दुर्गा ही व्यक्ति को प्रेरित है कि वह काली माई का वीभत्स रूप छोढ़कर सात्विक दुर्गम रूप धारण करे , सत मार्ग पर चलना कोई सहज कार्य नहीं है ,सत और असत में अन्वित्त -बोध ही अन्विता है ।

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दिशिता

दिशिता का अर्थ दिशा की तारतम्यता से है । दिशा के लिए दिश तथा दिक् भी प्रयोग में आता है । नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार को दिशा कहा जाता है । ओर संज्ञा भी दिशा के लिए प्रयुक्त होती है । क्षितिज -वृत्त के चार विभाग किए गये हैं । इन्हें पूर्व ,पश्चिम ,उत्तर तथा दक्षिण दिशा कहा गया है । क्रमश: प्रत्येक दो दिशाओं में एक- एक कोण भी दी गये हैं । ये कोण अग्नि ,नेरृति ,वायु और ईश नाम से जाने जाते हैं । एक दिशा ऊर्ध्व और दूसरी दिशा अध: होती है , पहली दिशा का पालक देवता ब्रह्मा और दूसरी दिशा का पालक देवता अनंत है । इस प्रकार दस दिशाएं हैं । दिशाओं में से किसी एक दिशा को अपना लक्ष्य बना कर प्रगति करनी होती है । सही दिशा का चयन एक बहुत महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है । अन्यथा दिग-भ्रम की स्थिति हो जाती है । स्व-केंद्र स्वयं निर्धारित करना होता है । स्वयं अपनी दिशा को निर्धारित कर प्रगति करनी होती है । इस स्थिति - मन में लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती है । दिशा-वृत्त में केंद्र-बिंदु बन कर दिशा की तारतम्यता बनाये रखना ही दिशिता है । इसे ही दिशा -बोध कहा जा सकता है । निश्चित लक्ष्य,पक्का इरादा ,दूर -दृष्टि ही दिशिता का पूर्ण मंतव्य है । उचित दिशा-बोध ही वस्तुत: है--- दिशिता

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बुधवार, 19 मई 2010

ऋत- सत्य

ऋत सत्य का सार्वभौमिक रूप है । ऋत के अमृत से ही व्यक्ति जीवित रहता है ,यह उसे अमृतत्व प्रदान करता है। लोक अर्थात संसार में जीव ऋत का पान करता हुवा पुण्य को प्राप्त करता है ,उसे यश की प्राप्ति होती है। ऋत ही एक अक्षर है ,जो ब्रह्म के समकक्ष है । ऋत सत्य के आचरण के लिए ही होता है । ऋत एवं सत्य स्वाभाविक धर्म हैं ;ऋत की सिद्धि ही सत्य की सिद्धि है । ऋत और सत्य एक रूप हैं । ऋत ह्रदय को आकर्षित करने वाला होता है । ऋत और सत्य यदि एक हैं ,तो उनमें अंतर है भी या नहीं ? यह प्रश्न सहजत: उत्पन्न होता है । वस्तुत: ऋत और सत्य में सूक्ष्म और व्यापक अंतर भी है । प्रथम ऋत तो प्राकृतिक एवं स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है ;जबकि सत्य इन्द्रिय- जनित संबंधों पर ही आधारित होता है । इन्द्रिय- जनित ज्ञान की अपनी सीमा होती है ;यह ज्ञान सीमा - सापेक्ष होता है। यह सत्य इन्द्रिय -शिथिलता के कारण अधूरा ,अपूर्ण और असत्य भी हो सकता है। अंधों और हाथी की कहानी तो प्रसिद्ध ही है ;सत्य निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष होता है। जबकि ऋत एक स्वाभाविक, एक सहज तथा सतत रहने वाली प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक धर्म की अटल स्थिति है। सूर्य-चन्द्र के समान गणितीय निष्चल स्थिति है। सत्य सामान्य ज्योतिषीय गणना हो सकती है। जो ठीक भी हो सकता है ;सम्भावना तो है ही। ऋत आध्यात्मिक है तो सत्य सांसारिक है ;महत्त्व तो दोनों का ही है ।

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मंगलवार, 18 मई 2010

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति का अर्थ है --अपने को किसी भी माध्यम के द्वारा प्रस्तुत करना। अनुभूति को विस्तृत एवं विस्तारित करना ही अभिव्यक्ति है । सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष कारण का प्रत्यक्ष कार्य में अभिव्यक्ति होती है । जैसे बीज से अंकुर का आविर्भाव होता है । कलात्मक स्थिति का ही प्रसार अभिव्यक्ति के माध्यम से होता है । कला के दो भेद हैं --ललित और उपयोगी ।वास्तु , मूर्ति , चित्र ,संगीत और काव्य ये पांच ललित कलाएं हैं। ललित कलाओं में अमूर्त -आधार की मात्रा के अनुसार उनकी श्रेष्ठ स्थिति को स्वीकार किया गया है। उपयोगी कलाओं में समस्त प्रकार की कलाओं को स्थापित किया गया है। कलाओं में पूर्णता अभिव्यक्ति के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अनुभूति जहाँ विचार रूप में स्थित है ,वहां अभिव्यक्ति कलात्मक रूप में शिल्पाकार ग्रहण करती है। यह विचार को अभिव्यक्त करने वाली कला है । अनुभूति जब स्थिर हो शुद्ध चेतना का रूप धारण करती है । तब अभिव्यक्ति अपना प्रसार प्रारम्भ करती है । अनुभूति यदि बीज है तो अभिव्यक्ति उसका अंकुरित ,प्रस्फुटित ,पुष्पित ,प्रफुल्लित एवं फलित रूप है। अनभूति के द्वारा आंतरिक लोक की परम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । तो अभिव्यक्ति द्वारा इह लोक में यश ,कीर्ति , वैभव ,प्रसिद्धि तथा आनंद को प्राप्त की जा सकता है। मेरी अभिव्यक्ति ही मुझे यश दिला सकती है .... ।

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सोमवार, 17 मई 2010

अनुभूति

अनुभूति एक मानसिक प्रक्रिया है ,जो शरीर पर भी अनुभव की जाती है। शारीरिक अनुभूति एक सामान्य स्थिति है। शरीर में किसी तरह का वेदन ही शारीरिक अनुभव की स्थायी स्थिति की अनुभूति है। भव का अनुसरण ही अनुभव है । जो कुछ भी घटित हो रहा है ,वह भव ही है । भव एक सतत प्रक्रिया है ,जो लगातार गतिशील रहती है।संसारं का नाम संसरण के कारण ही है। भव संसार का तात्पर्य प्रत्येक पदार्थ एवं वस्तु का उत्पन्न होना, क्षण -भर रहना तथा भंगुर हो जाना ही क्षण भंगुरता अर्थात क्षण-क्षण में परिवर्तन-शील होना ही भव्-संसार है। यह क्षण-क्षण ही अनुभव के रूप में स्थिर रहता है। इसे ही स्थायी रूप में अनुभूति के रूप में सम्बोधित किया जाता है। मानसिक रूप में अनुभूति राग एवं द्वेष के स्वरूप को रूपायित करती है। प्रारम्भ में राग सुख का कारण बनता है और द्वेष दु:ख का कारण हो जाता है। रागात्मक सम्बन्ध से सुखात्मक अनुभूति होती है और द्वेष युक्त सम्बन्धों से दु :ख की अनुभूति हो जाती है। अनुभूति निर्विकार होती है। वह स्वच्छ दर्पण के समान होती है। दर्पण में जैसी छाया भासित होती है ,अनुभूति वैसी ही हो जाती है। वस्तुत: अनुभूति को अपने ज्ञान ,मन,अहंकार ,बुद्धि एवं चित्त के द्वारा संवर्धित किया जा सकता है। मेरी अनुभूति तो मेरी ही है ...........?

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